मैं नदी हूँ कविता। mai nadi hu kavita in Hindi

mai hu nadi poem in hindi

मैं नदी हूँ
अब नहीं मै ऊछलूंगी
सूख गए कण्ठ गर मेरे तो
बन्द बोतल नीर का पता
मैं पूछ लूंगी

कितनी लाशों और कितने ढेर को
कब तलक मै सम्भालूँ और क्यों?
अधमरी तो हूँ मैं सालों-साल से,
उम्मीद बंधती है नहीं इस चाल से
सुध मेरी लो ,नहीं और कुछ लूंगी.
मैं नदी हूँ ………….

मैं बही हूँ पर्वतों से,खेत से
मैं बही हूँ घाटियों के पेट से,
मैं बहूंगी नहीं सरकारी रेट से.
छोड़ दो मैं मुश्किलों से जूझ लूंगी.
मैं नदी हूँ…

अब भी सुध मेरी अगर ना लोगे तुम
सत्य कहती हूँ ;मैं हो जाऊंगी ग़ुम
अब ज़रुरत है ना मेरी, बूझ लूंगी.
मैं नदी हूं…………

तन बहुत देखे मेरे भीगे हुए,
दिख सका ना चेहरा मेरा भीगा हुआ ?
मैं रहूँ नहीं,बचेगी सभ्यता ?
पूछो अपने मन से, मैं तुमसे पूछ लूंगी.
मैं नदी हूँ…

मैं नदी हूँ कविता

पढ़िये सुभाष राय जी द्वारा रचित कविता मैं नदी हूँ –

नदी के पास
होता हूँ जब कभी
बहने लगता हूँ
तरल होकर

नदी को उतर जाने
देता हूँ अपने भीतर
समूची शक्ति के साथ
उसके साथ बहती
रेत, मिट्टी, जलकुंभी
किसी को भी
रोकता नहीं कभी

तट में हो
बिल्कुल शांत, नीरव
या तट से बाहर
गरजती, हहराती
मुझे बहा नहीं पाती
तोड़ नहीं पाती
डुबा नहीं पाती

मैं पानी ही हो जाता हूँ
कभी उसकी सतह पर
कभी उसकी तलेटी में
कभी उसके नर्तन में
कभी उसके तांडव में

फैल जाता हूँ
पूरी नदी में
एक बूँद मैं
महासागर तक

रोम-रोम भीगता
लरजता, बरसता
नदी के आगे
नदी के पीछे
नदी के ऊपर
नदी के नीचे

कैसे देख पाती
वह अपने भीतर
पहचानती कैसे मुझे
ख़ुद से अलग
जब होता ही नहीं
मैं उसके बाहर

जब कभी सूख
जाती है वह
निचुड़ जाती है
धरती के गर्भ में
तब भी मैं होता हूँ
माँ के भीतर सोई नदी में
निस्पंद, निर्बीज, निर्विकार

मैं नदी सूख रही हूँ, घुट घुट के जी रही हूँ – कविता

मैं नदी सूख रही हूँ,
घुट घुट के जी रही हूँ।
मैं नदी सूख रही हूँ,
घुट घुट के जी रही हूँ।

वर्षा का पानी खेतों पर,
बहा बहा के लाती थी !
और उनको मैं पानी का टैंक बनाती थी।

कचड़ा वर्षों का बहा बहा,
मै समुद्र में ले जाती थी !!
लाख करोडो जीवों को,
मैं स्नान कराती थी !!
बांध कर मैं बांध मजबूर हो रही हूँ।

मैं नदी सूख रही हूँ,
घुट घुट के जी रही हूँ।
मैं नदी सूख रही हूँ,
घुट घुट के जी रही हूँ।

लाख करोडो पेंड पौधे,
जो मेरे किनारों में थे !
अरबों के हुए नष्ट वो भी ,
जो मेरे सहारों में थे !
मुझे काट कर खेत बनाये,
मेरा स्वरुप बदले!
मैंने इनका क्या बिगाड़ा,
जो मुझ पर ही नजरें गड़ाए !

मैं नदी सूख रही हूँ,
घुट घुट के जी रही हूँ।
मैं नदी सूख रही हूँ,
घुट घुट के जी रही हूँ।

हर दिन की जरुरत पर मैं,
पानी देती उनको !
पता नहीं की किस जन्म का बदला चुकाए मुझसे,
मुझे नस्ट कर क्या पायें,
क्या कहूँ मैं इनसे !!

मैं नदी सूख रही हूँ,
घुट घुट के जी रही हूँ।
मैं नदी सूख रही हूँ,
घुट घुट के जी रही हूँ।


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